लेखनी कहानी -09-Mar-2023- पौराणिक कहानिया
राजा साहब सोचने
लगे-दुष्ट को
इनाम माँगते शर्म
भी नहीं आती,
मानो मेरे नाम
कोई धान्यवाद-पत्रा
लाए हैं। कुत्तो
हैं, और क्या,
कुछ न दो,
तो काटने दौड़ें,
झूठी-सच्ची शिकायतें
करें। समझ में
नहीं आता, क्लार्क
ने क्यों अपना
हुक्म मंसूख कर
दिया। जॉन सेवक
से किसी बात
पर अनबन हो
गई क्या? शायद
सोफ़िया ने क्लार्क
को ठुकरा दिया।
चलो, यह भी
अच्छा ही हुआ।
लोग यह तो
कहेंगे ही कि
अंधो ने राजा
साहब को नीचा
दिखा दिया; पर
इस दुहाई से
तो गला छूटेगा।
उनकी दशा इस
समय उस आदमी
की-सी थी,
जो अपने मुँह-जोर घोड़े
के भाग जाने
पर खुश हो।
अब हव्यिों के
टूटने का भय
तो नहीं रहा।
मैं घाटे में
नहीं हूँ। अब
रूठी रानी भी
प्रसन्न हो जाएँगी।
इंदु से कहूँगा,
मैंने ही मिस्टर
क्लार्क से अपना
फैसला मंसूख करने
के लिए कहा
है।
वह कई दिन
से इंदु से
मिलने न गए
थे। अंदर जाते
हुए डरते थे
कि इंदु के
तानों का क्या
जवाब दूँगा। इंदु
भी इस भय
से उनके पास
न आती थी
कि कहीं फिर
मेरे मुँह से
कोई अप्रिय शब्द
न निकल जाए।
प्रत्येक दाम्पत्य-कलह के
पश्चात् जब वह
उसके कारणों पर
शांत हृदय से
विचार करती थी,
तो उसे ज्ञात
होता था कि
मैं ही अपराधिान
हूँ, और अपने
दुराग्रह पर उसे
हार्दिक दु:ख
होता था। उसकी
माता ने बाल्यावस्था
ही से पातिव्रत्य
का बड़ा ऊँचा
आदर्श उसके सम्मुख
रहा था। उस
आदर्श से गिरने
पर वह मन-ही-मन
कुढ़ती और अपने
को धिाक्कारती थी-मेरा धार्म
उनकी आज्ञा का
पालन करना है।
मुझे तन-मन
से उनकी सेवा
करनी चाहिए। मेरा
सबसे पहलार् कत्ताव्य
उनके प्रति है,
देश और जाति
का स्थान गौण
है; पर मेरा
दुर्भाग्य बार-बार
मुझेर् कत्ताव्य-मार्ग से
विचलित कर देता
है। मैं इस
अंधो के पीछे
बरबस उनसे उलझ
पड़ी। वह विद्वान
हैं, विचारशील हैं।
यह मेरी धाृष्टता
है कि मैं
उनकी अगुआई करने
का दावा करती
हूँ। जब मैं
छोटी-छोटी बातों
में मानापमान का
विचार करती हूँ,
तो उनसे कैसे
आशा करूँ कि
वह प्रत्येक विषय
में निष्पक्ष हो
जाएँ।
कई दिन तक
मन में यह
खिचड़ी पकाते रहने के
कारण उसे सूरदास
से चिढ़ हो
गई। सोचा-इसी
अभागे के कारण
मैं यह मनस्ताप
भोग रही हूँ।
इसी ने यह
मनोमालिन्य पैदा कराया
है। आखिर उस
जमीन से मुहल्लेवालों
ही का निस्तार
होता है न,
तो जब उन्हें
कोई आपत्तिा नहीं
है, तो अंधो
की क्यों नानी
मरती है! किसी
की जमीन पर
कोई जबरदस्ती क्यों
अधिाकार करे, यह
ढकोसला है, और
कुछ नहीं। निर्बल
जन आदिकाल से
ही सताये जाते
हैं और सताये
जाते रहेंगे। जब
यह व्यापक नियम
है, तो क्या
एक कम, क्या
एक ज्यादा।
इन्हीं दिनों सूरदास ने
राजा साहब को
शहर में बदनाम
करना शुरू किया,
तो उसके ममत्व
का पलड़ा बड़ी
तेजी से दूसरी
ओर झुका। उसे
सूरदास के नाम
से चिढ़ हो
गई-यह टके
का आदमी और
इसका इतना साहस
कि हम लोगों
के सिर चढ़े।
अगर साम्यवाद का
यही अर्थ है,
तो ईश्वर हमें
इससे बचाए। यह
दिनों का फेर
है, नहीं तो
इसकी क्या मजाल
थी कि हमारे
ऊपर छींटे उड़ाता।